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उपन्यास >> त्रिपुर सुन्दरी

त्रिपुर सुन्दरी

र श केलकर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6854
आईएसबीएन :978-81-8031-193

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आध्यात्मिक उन्नति में साधक की अन्तिम दुर्बलता काम ही है, उससे पार पाना आसान नहीं है...

Tripur Sundari A Hindi Book by R.S. Kelkar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक दिन नहा-धोकर जब उसने आईना देखा था, तब उसके मन का सारा अवसाद तिरोहित हो गया था। अपने रूप पर वह स्वयं ही मुग्ध हो उठी थी और भावावेश में उसने आईने को चूम लिया था। उसी दिन उसने तय कर लिया था कि वह विवेक से हार नहीं मानेगी-किसी से भी हार नहीं मानेगी। उसी रात उसने स्वप्न में बाबा को देखा था। वह मुस्कुराकर कह रहे थे-‘तुम्हारी शक्ति तुम्हारे अपने आप पर नियन्त्रण रखने में है। इस नियन्त्रण को रख सको तो तुम त्रिपुर सुन्दरी हो। न रख सको तो तुम अपने आपके केवल नारी पाओगी। तुम्हारी सुखद गोद में लेटते समय मैंने तुम्हे त्रिपुर सुन्दरी के रूप में देखा था और तुम त्रिपुर सुन्दरी ही थीं। पर अब तुम उस घटना को नारी बनकर सोच रही हो, यह उचित नहीं है। संसार मे केवल माँ बनकर रहो। इसी में तुम्हारा कल्याण है।’

त्रिपुर-सुन्दरी


जब-जब वह सोचता, वह अपने को ही दोषी पाता रहा था। श्यामला का दोष उसे देखने पर भी नहीं दिखाई देता, उसने तो आरम्भ से ही उसके साथ माँ का-सा व्यवहार किया है, पर उसके अपने मन में खोट आ जाए तो वह बेचारी क्या करे ? वह जानता था कि वह योगिनी है। साधना में वह काफी प्रगति कर चुकी है। वह उस परिपक्वता को प्राप्त कर चुकी है, जहाँ से फिसलना मुश्किल है, और वह ऐसी कोई बात सोच भी कैसे सकती है ! उसका पति है, बच्चे हैं। नहीं, नहीं ! वह पवित्र है। शुरू से ही रही है। पर वह निःसंकोच भाव से उसको स्पर्श करती है-अपनी गोद में लिटा देती हैं। यह सब वह क्यों करती हैं ? कहीं वह अपने आपको परख तो नहीं रही हैं ? शायद यही बात हो। आध्यात्मिक उन्नित में साधक की अन्तिम दुर्बलता काम ही है। उससे पार पाना आसान नहीं है। अक्सर मनुष्य यह समझते हुए भी कि वह उससे परे जा चुका है, मौका आते ही अचानक फिसल पड़ता है और ऐसा गिरता है कि फिर कभी भी वह नहीं उठ सकता। श्यामला के लिए वह एक पराया पुरुष है। उसे अपनी गोद देकर वह शायद अपने में होने वाली प्रतिक्रिया देखना चाहती है। काम को परखना चाहती है। उसे लगा कि यदि यही बात है तो श्यामला को अपनी सफलता का साधन उसे नहीं बनाना चाहिए। यह तो उसके प्रति अन्याय है।

विवेक


चंचल गंगा झिलमिलाते तारों की चादर ओढ़े प्रणव-गीत गाती जा रही थी। उस अप्रतिम सौन्दर्य के ध्यान में दूरवर्ती पहाड़ समाधिस्थ थे। गंगा की नूपुर ध्वनि से सारा वातावरण मुखरित हो उठा था।

विवेक आश्रम के आँगन में लेटा रात के उस प्रहर में सृष्टि-सौन्दर्य को देख रहा था। अनायास ही उसके मस्तिष्क-पटल पर एक छबीली आकृति उभरने लगी। उसने गौर से देखा-अरे ! यह तो श्यामला है ! विवेक समझ बैठा था कि चार साल के योगाभ्यास से वह भौतिक अकर्षणों से परे पहुँच चुका है। श्यामला अपने समस्त आकर्षणों के साथ उसके लिए उस चैतन्यमय त्रिपुर-सुन्दरी मे विलीन हो चुकी है, जिसका चिन्तन वह पिछले चार सालों से अखण्ड रूप में करता आ रहा है। उसे विश्वास था कि अब नारी का रूप उसे आकर्षित नहीं कर सकता। नहीं ! नहीं !! वह घिनौना आकर्षण है ! शरीर-जन्य है-सर्वदा रहा है। भूख-प्यास की तरह ही। माना कि वह सबसे बड़ा भौतिक आनन्द है, पर वह भी तो चिरस्थायी नहीं है, और आत्मानुभूति का एक छोटा-सा क्षण उससे कहीं अधिक आनन्ददायी है। संसार पर विश्वास नहीं करेगा, न करे-त्रिपुर-सुन्दरी-अखिल रूप की राशि चिन्मय, शक्ति, जिससे समस्त जड़-चेतन गतिमान है। कैसा होगा वह विराट सौन्दर्य !

एक बार जब स्वामीजी के सम्मुख उसने त्रिपुर-सुन्दरी के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की थी, तब स्वामीजी ने गम्भीरता से कहा था- ‘‘भगवती का दर्शन हो सकता है, पर तुम उसे सहन कर सकोगे ?’’ उसके मुँह पर बात आकर रुक गई थी। ‘सहन न कर सका तो भी मुझे खेद न होगा। भगवती के दर्शनों के लिए मैं सहर्ष यह शरीर छोड़ने के लिए तैयार हूँ।’ पर वह अपनी बात कह नहीं पाया था।

उसने बाई ओर देखा, स्वामीजी, निश्चल सोए हुए थे। अँधेरे में भी उनका चेहरा वह साफ देख सकता था-निर्विकार, आनन्दयुक्त। वे बाल-ब्रह्यचारी हैं....सिद्ध योगी। उसने सोचा-कितनी कठिन साधना रही होगी। आज प्रत्येक स्त्री उनके लिए भगवती रूप है- त्रिपुर-सुन्दरी माँ ! और वह भी तो त्रिपुर-सुन्दरी माँ की हो उपासना मे लगा हुआ है। गत चार वर्षों से वह उनके दर्शनों के लिए व्याकुल है दर्शन की इच्छा के पीछे कही मन की कोई दुर्बलता तो सुप्त अवस्था काम नहीं कर रही है ? यह भी तो सम्भव है कि जिस आकर्षण को उसने ऊपर से जबर्दस्ती दबा दिया हो, वही निगूढ़ बनकर उसके व्यक्तित्व में समा गया हो। ऐसा न होता तो वह त्रिपुर-सुन्दरी की ही उपासना क्यों अपनाता ? त्रिपुर-सुन्दरी के दर्शनों की लालसा में क्या उसकी अपनी रूप-लोलुपता निहित नहीं है ? पार्थिव नारी से उठकर वह एक दिव्य नारी पर अनुरक्त हो गया है।....नहीं ! नहीं !! वह चैतन्यरूपिणी है-दिव्य है, माँ है ! उसके प्रति ऐसे बहके-बहके विचार उसके मन में क्यों आ रहे हैं ? भगवती के दर्शनों के लिए व्याकुल होकर जब एक बार ध्यान करने के लिए बैठा था, तब उसने भगवती के उद्दगार स्पष्ट सुने थे, ‘‘मुझमें और तुममें कोई अन्तर नहीं है। मैं तुम्हारे ही अन्दर हूँ, और तुम्हारे बाहर समस्त जड़-चेतन में भी व्याप्त हूँ।’’

ध्यान के बाद उसने सोचा था, जहाँ पूर्ण अद्वैत हैं, वहाँ विकार रह ही कैसे सकता है ? पर वह तो ध्यान की बात थी ! तब उसका चैतन्य के साथ तादात्म्य स्थापित कर चुका था, पर जब वह दर्शन की अभिलाषा करता है, उस समय उसका ‘मैं’ अपने को उस चैतन्य सत्ता सर्वथा अलग मानकर ही चलता है। अतः उसमें विकार भी हो सकता है। और थोड़ी देर के लिए मान ले कि उसकी प्रार्थना स्वीकार करके वह रूप-राशि उसके सम्मुख प्रकट हो जाती हैं तो वह क्या करेगा ? जब एक छोटे पार्थिक रूप को देखकर मनुष्य खो जाता है, तेजोपुंज उस अखिल रूप-राशि को देखकर उसकी क्या स्थिति होगी ? और अगर मन में कोई विकार नहीं है तो उस चैतन्य छवि वह साकार रूप में ही क्यों देखना चाहता है ? प्रश्न अधिक जटिल हो गया है।

तारे अब भी झिलमिला रहे थे। गंगा अखण्ड रूप से प्रवाहित हो रही थी। आज ही हरिद्वार आया था। भगवती के दर्शनों की अदमनीय अभिलाषा लेकर। उसने तय कर रखा था कि आश्रम पहुँचते ही वह स्वामीजी से अनुरोध करेगा, उनके पैरों पड़ेगा और कहेगा कि बिना त्रिपुर-सुन्दरी के दर्शन के वह नहीं लौटेगा। पर आश्रम पहुँचकर स्वामीजी को देखते ही उसकी जुबान जैसे बन्द हो गई। हृदय में तूफान उठा था, पर वह कह कुछ भी न सका। जब भी  वह कुछ कहने का हुआ था, पर वह कह कुछ भी न सका। जब भी वह कुछ कहने का प्रत्यन करता तब स्वामीजी की भव्य शान्त मुख-मुद्रा उसे रोक देती। सामने स्वामीजी पर नजर डाली। वही शान्ति अब भी उनके चेहरे पर विद्यमान थी।...शब्द-स्पर्श, रस-रूप-गंध से भी परे कोई चिन्मय सृष्टि है ! और उसकी प्राप्ति भी यही पाँच गुणों से गुणों से युक्त शरीर कर सकता है ! कैसा विरोधाभास है ? श्यामला के यौवन-भरे रूप को देखते ही उसका रोम-रोम खिल उठा था। वह अपने आपको खो बैठा था। उसके रूप के निखार में क्या वही तत्त्व नहीं था, जिसका साक्षात्कार उसने कई बार किसी सुन्दर-से ताजे फूल में, किसी सुडौल सुन्दर बालक  में या किसी छोटे-से पनपते पौधे में किया था ? ये सभी वस्तुएँ होते हुए भी उनके सौन्दर्य में उसने जरा भी विरोध नहीं पाया था। वह सभी जो सत्य, शिव और सुन्दर है, सर्वत्र वंदनीय है।
श्यामला के चकाचौंध करने वाले रूप में भी तो वही चिरन्तन तत्त्व विद्यमान था। फिर वह आकर्षण अवांछनीय क्यों है ? इसीलिए कि वह नारी है ? किन्तु वह तो प्रेम, वात्सल्य और स्नेह की त्रिवेणी है, सदा रही है। श्यामला को भगवती के रूप में भी तो देखा जा सका है...।

विचारों से ऊबकर उसने करवट बदली, जँभाई ली और न जाने कब उसे नींद आ गई।
‘‘उठों और मेरे पीछे आओ,’’ उसने स्वामीजी की आदेश भरी आवाज सुनी और वह हड़बड़ाकर उठ बैठा।
‘‘आओ....’’

वह चुपचाप स्वामीजी के पीछे हो लिया। वे द्रुतगति से गंगा के किनारे-किनारे पत्थर लाँघते चले जा रहे थे और वह गिरता-सँभलता उनके पीछे-पीछे चला जा रहा था। थोड़ी दूर जाकर स्वामीजी सहसा रुके और गंगा को पार करने के लिए पानी की सतह पर चलने लगे। विवेक ठिठक गया। यह दृश्य उसके लिए अनोखा था।
विवेक को रुका देखकर पीछे देखे बिना ही उन्होंने आदेश भरे स्वर में कहा-‘‘डरो मत, निर्भयता से मेरे पीछे-पीछे चले आओ। यह विचार मन से निकाल दो कि तुम डूब जाओगे।’’

स्वामीजी के स्वर के आकर्षण से विवेक उनके पीछे मंत्रमुग्ध-सा खिंचता चला गया।
गंगा के पार बीहड़ जंगल में जाकर स्वामीजी सहसा रुक गए सामने एक छोटा-सा चंडी का मन्दिर था।
‘‘वह देखो,’’ उन्होंने मूर्ति की ओर इंगित करते हुए कहा तुम्हारी आराध्या भगवती है।’’
विवेक ने उस स्फटिक मूर्ति की ओर देखा और अनायास ही उसकी आँखें उसकी नारी-सुलभ गठन पर स्थिर हो गई। स्वामीजी ने मानों उसके भाव को पहचानते हुए ओजस्विता से कहा-‘‘यों नहीं, अपने पुरुषत्व को भूलकर माँ का दर्शन करो।’’

विवेक को लगा कि अकस्मात किसी ने उसके मुँह पर तमाचा जड़ दिया है। क्षण भर के लिए ग्लानि से उसकी आँखें झुक गई ! फिर जब उसने दयनीय भाव से आँखें उठाई तब जैसे उसके सामने बिजली कौंध गई। मूर्ति के स्थान पर साक्षात भगवती विद्यमान थीं। अरुणाभ तेज से बनी हुई वह वात्सल्यपूर्ण दिव्य देह नील तेजोवलय से वेष्टित समस्त वातावरण को देदीप्यमान एवं आनन्दमय बना रही थी। विवेक आत्मविस्मृत होकर उस दिव्य सौन्दर्य के साथ तद्रूप हो चुका था-विकार शून्य, देह-भाव-विहीन-वह केवल अस्तित्व रूप में शेष था।
सहसा त्रिपुर-सुन्दरी उस पाषाण प्रतिभा में समा गई।
चैतन्यमयी माँ के विछोर में उसकी आत्मा चीत्कार उठी। आँखों से आँसू ढुलकने लगे और पछाड़ खाया-सा वह मूर्ति के चरणों में गिर पड़ा।

सिर की वेदना से उसकी नींद खुल गई। विवेक ने देखा न मन्दिर है और न मूर्ति। वह अपनी ही चारपाई पर लेटा है। आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही है और स्वामीजी तख्त पर बैठे उसी की ओर देखते हुए मुसकरा रहे हैं।
स्वामीजी से हटकर विवेक की दृष्टि सामने वाले पहाड़ के शिखर पर जा पडी। उसके पीछे पौ फट रही थी जिसके कारण वह पहाड़ और भी अधिक काला दिखाई दे रहा था। ऊपर आकाश मे एकाध बादल के टुकड़े को लालिमापूर्ण प्रकाश की छटा अभी छूने ही लगी गयी।

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